Monday, January 5, 2009

संध्या की चितकार !

जब कभी इंसान अपने फुरसत के पलो को जी रहा होता है और एक सरसरी निगाह अपने गुजरे वक्त पर डालता है तो उसे महसूस होता है कि समय कितनी जल्दी पंख लगाकर उड़ गया । वह उन लम्हों को याद करता है जो उसकी जीवनचर्या पर एक अमिट छाप छोड़ जाते है । और कुछ ख़ास किस्म के गुजरे लम्हे तब अक्सर याद आ जाते है जब उस आतीत में घटी घटना से मिलता जुलता कोई नज़ारा अचानक आँखों के सामने आ जाए । ऐंसा ही कुछ ख़ास मेरे साथ भी घटित हुआ था, या यह कहना उचित होगा कि मेरी आँखों के आगे घटित हुआ था। शायद गुजरे साल की 'आखिरी संध्या' शब्द प्रयोग करना ठीक नही है, अपितु नए साल की 'पूर्व संध्या' शब्द एक सकारात्मक सोच की ओर ध्यान अग्रसर करता है । आने वाले साल की ओर एक आशावादी दृष्टीकोण परिलक्षित करता है । अभी कुछ दिन पहले, नए साल की पूर्व संध्या पर दफ्तर से घर लौट रहा था तो सड़क पर दो मोटरसाईकिल सवारों के, नशे में धुत होकर मचाये जा रहे हुडदंग ने मुझे मेरे अतीत में लौटने पर मजबूर कर दिया ।

३१ दिसम्बर, २००२ की शाम, हर नए साल की पूर्व शाम की तरह ही एक ख़ास शाम थी, २००३ के आगमन का वेसब्री से, जश्न मनाकर इंतज़ार किया जा रहा था । मैं ओर मेरी कम्पनी के विदेश स्थित कार्यालय के तीन इंजीनियर शाम करीब ५ बजे, जेट एयरवेज की उड़ान से बेल्लारी, कर्नाटक में जेटी के निर्माणाधीन विधुत प्लांट से कुछ जरुरी कार्य निपटाकर दिल्ली स्थित अपने ऑफिस पहुंचे थे । परम्परा के हिसाब से 'न्यू इयर इव' मनाने की पूरी तयारी हो चुकी थी ओर हमारे दफ्तर के सभी मित्रगण बस हमारा ही इंतज़ार कर रहे थे । शाम करीब करीब सवा छः बजे, कॉकटेल पार्टी शुरु हुई ओर गपो ही गपो में रात के कब नौ बज गए थे, पता ही नही चला। नौ सवा नौ के बीच मैं घर के लिए निकला था । मुझे ध्यान था कि मैंने बंगलोर से विमान में बैठते वक्त फोन पर अपने बच्चो से प्रोमिस किया था कि मैं जल्दी घर पहुँच जाऊंगा, और साथ ही अपनी पत्नी से उसे रात का खाना न बनाने को कहा था । मैंने कहा था कि ऑफिस से घर लौटते वक्त मैं किसी रेस्टोरेंट अथवा ढाबे से खाना पैक करवाकर ले आऊंगा ।


दफ्तर से निकल कर जब मुख्य सड़क पर पहुँचा तो पूरा शहर कोहरे की एक पतली चादर ओढ़ चुका था । मण्डी हाउस का गोल चक्कर पार करते ही ट्रैफिक रेंगने लगा था । सड़क पर वाहनों का एक लंबा जाम लग गया था, और कोहरे की वजह से सड़क पर दृश्यता भी कम हो गई थी । मैं यधपि घर पहुँचने और बच्चो के साथ न्यू इयर इव मनाने की जल्दी में था, मगर फिर भी सड़क पर बिना किसी हडबडाहट के आराम से ड्राइव कर रहा था । वैसे तो मैं कभी भी पीकर ड्राइव करना पसंद ही नही करता, मगर उस दिन एक खास अवसर होने और कंपनी के कुछ मित्रो द्वारा जोर जबरदस्ती करने पर थोड़ा पी भी गया था, इसलिए भी ड्राइव में पूरी सावधानी बरत रहा था । मण्डी हाउस से मुश्किल से १०० मीटर आगे ही पहुँचा हूँगा, कि मेरी गाड़ी के ठीक आगे जा रही एक सेंट्रो कार में बैठे तीन लोगो की हरकतों ने मेरा ध्यान बरबस खींच लिया । तीनो करीब २० से २५ साल के युवा थे, और शायद जवानी, पैसा और शराब तीनो के नशे में चूर थे । बगल से जा रही किसी गाड़ी में अगर कोई महिला या युवती देखते तो तीनो एकटक वहीँ नज़र गडा लेते। फिर जब स्कूटी पर सवार एक युवती उनके बगल से गुजरी तो सेंट्रो में पीछे बैठे शख्स ने खिड़की से उसका दुपट्टा खींचने की कोशिश की । मैं उनकी हरकतों पर नज़र गडाये सतर्कता से ड्राइव करता चला जा रहा था ।

आईटीओ चौराहे की लाल बत्ती पार की तो विकास मार्ग पर यातायात और भी धीमा हो गया था, क्योंकि विपरीत दिशा में लोकनायक सेतु पर एक डीटीसी की बस और एक कार में जबरदस्त भिडंत हो गई थी, और तमाशबीनों ने सड़क पर हुजूम खड़ा कर दिया था । मेरे आगे जा रही सैंट्रो अब दो कारो को ओवरटेक कर मेरे से थोड़ा दूरी पर निकल गई थी । थोड़ा और आगे बढे तो आगे चडाई पर एक सुनशान ( तब सुनशान था मगर अब सुनशान नही रहा ) रास्ता बगल की तरफ़ से राजघाट को जाता है । सड़क के उस कटाव के दूसरी पार एक आल्टो कार खड़ी थी और एक २०-२१ साल की औसत कद की युवती कभी कार की ड्राइविंग सीट पर बैठती, फिर कभी बाहर उतर कर कार का बोनट खोल अंधेरे में अपने मोबाइल की लाईट से इंजन में कुछ देखने का प्रयास करती और कभी मोबाइल पर किसी को फोन लगाने की कोशिश करती। नए साल के आगमन के संदेशो की वजह से नेटवर्क व्यस्त हो गए थे, और शायद फ़ोन नही लग पा रहा था । दूर से तथा धुंद होने की वजह से मैं उसे ठीक से तो नही देख पा रहा था मगर उसके हाव भावों से लगता था की वह काफ़ी घबराई हुई और परेशान है । फिर मैंने देखा कि जो तीन युवा सैंट्रो कार से जा रहे थे उन्होंने उस युवती से कुछ बात की, और फिर अपनी सेंट्रो उसकी आल्टो के आगे लगा दी, मानो इसी मौके की तलाश में हों ।


मुझे किसी अनहोनी का अंदेशा होने लगा था, इसलिए अपनी गाड़ी को कटाव के इस पार ही रोककर शौच जाने का दिखावा करने लगा । एक बारी तो मन में आया कि जाकर उस लड़की को सावधान कर दू, मगर फिर सोचा कि इस तरह बिना किसी सबूत के किसी के बारे में क्या कहूँगा ? और अगर वो तीनो युवक मुझ से उलझ गए तो फिर रंग में भंग पड़ जायेगा । कुछ देर बात करने के बाद उन लड़को ने अपने सेंट्रो की डिक्की खोल, एक तार जैंसी कोई पतली और नोकीली वस्तु निकाली और उस आल्टो को अपनी सेंट्रो के पीछे बाधने लगे । एक बारी तो मुझे लगा कि शायद इन लोगो को इसी युवती ने मदद के लिए बुलाया है, फिर भी कुछ देर पहले की उनकी हरकते देखकर मैं उनपर कम से कम लक्ष्मीनगर तक पीछे से नज़र रखना चाहता था । फिर उनमे से दो लड़के सैंट्रो की अगली सीट पर बैठ गए और एक लड़का आल्टो की ड्राइविंग सीट पर बैठ गया, उन्होंने उस युवती को सेंट्रो की पिछली सीट पर बिठा दिया ।

ट्राफिक अब थोड़ा गति पकड़ने लगा था । जैसे ही वो लोग आगे बढे मैं उनके पीछे-पीछे हो लिया था । सेंट्रो और मेरी कार के बीच में आल्टो कार आ जाने की वजह से, सैंट्रो पर ठीक से नज़र नही रख पा रहा था । वैसे भी सेंट्रो के शीशो पर एक घनी ओंस की परत जमी हुई थी । सिर्फ़ प्रयाप्त रोशनी में ही अन्दर की गतिबिधियों पर नज़र रखी जा सकती थी । एक किलोमीटर चले होंगे कि मैंने देखा कि सड़क के नीचे ढलान पर जहाँ झुग्गियां थी, उधर की तरफ़, सैंट्रो की खिड़की से तेजी से एक सफ़ेद किस्म का कपड़ा फेंका गया । मुझे समझते देर न लगी कि यह उस युवती द्वारा पहनी हुई सफ़ेद जाकेट थी । रात के साढ़े दस बज चुके थे, सड़क पर वाहनों का जमावडा छंटने लगा था । चुंगी के पास की लाल बत्ती से उन्होंने कार अक्षरधाम को जाने वाले रास्ते की तरफ को मोड़ दी । उस समय अक्षरधाम से लक्ष्मीनगर चुंगी को जोड़ने वाला सेतु निर्माणाधीन था अतः कार की गति बढाते हुए उन्होंने कार को भेरों मार्ग पंटून पुल की तरफ़ मोड़ दिया । अब मेरा शक यकीन में बदल चुका था । क्योंकि अगर ये लड़के उस युवती की मदद के लिए आए हुए होते, तो इतना लंबा चक्कर काटने के बाद वापस पंटून पुल की तरफ़ क्यो जाते? और जब से विकास मार्ग के चौडीकरण का काम पुरा हुआ था तो पंटून पुल का लगभग सारा ट्राफिक विकास मार्ग से होकर जाने लगा था, और इस पंटून पुल वाले रास्ते को सिर्फ़ साईकिल वाले या एक्का- दुक्का वाहन वाले ही इस्तेमाल करते थे । मैं अपनी गाड़ी उनके पीछे लगाये रखा, और अपने मोबाइल से पुलिस कंट्रोल रूम को फ़ोन किया और उस सैंट्रो का व्योरा दिया । मैंने उन्हें अपनी गाड़ी का नम्बर भी दिया और कहा कि मैं उनका पीछा कर रहा हूँ ।

हालांकि मेरे मस्तिस्क मे घर पर बच्चो के भूखा होने की फिक्र थी, और एक बारी दिमाग मे आया भी था कि छोड़ मुझे झंझट मे पड़ने से क्या फायदा, अपने रास्ते चलते बनू । लेकिन फिर दिल के किसी कोने से मुझे मेरा फ़र्ज़ आवाज़ दे रहा था । मैं अकेला था और वो तीन , और निहायत शरीफ किस्म के इंसानों की श्रेणी मे आने की वजह से मेरे पास कोई हथियार भी नही था । सिर्फ़ एक छोटा पेंचकस डेशबोर्ड पर पड़ा था । मेरा दिमाग तेजी से घूम रहा था कि मैं क्या करू ? अचानक मुझे ध्यान आया कि मैंने अपनी गाड़ी के बम्पर के नीचे एक स्टील का पतला, एक मीटर लंबा स्केल रखा है इस स्केल की भी एक दिलचस्प कहानी थी ।


हुआ यूँ कि सन् २००२ के आसपास मेरी गाड़ी एक दिन इंडिया हैबीटैट सेंटर की पार्किंग मे खड़ी थी, जब मैं अपने ज़रूरी काम निपटाकर वापस गाड़ी के पास लौटा, और मैंने गाड़ी स्टार्ट की तो अचानक ऑफिस के बॉस का फ़ोन आ गया । बेसमेंट मे पार्किंग होने की वजह से मोबाइल पर ठीक से सुनाई नही दे रहा था और उस ज़माने मे मोबाइल फ़ोन के नेटवर्को की हालत भी पतली ही थी । मैं, हडबडाहट मे गाड़ी से बाहर निकल फ़ोन पर बातें करने लगा और चाबी कार के इग्निसन पर ही लगी रह गई । अतः गाड़ी के दरवाजे अन्दर से बंद हो गए, शीशे भी चड़े हुए थे । फ़ोन सुनकर जब वापस गाड़ी के पास लौटा तो अपनी गलती का अहसास हो गया, अब क्या करू ? तभी पार्किंग बॉय ने मुझे कहा कि साब मेरे पास स्केल है, मैं खोल देता हूँ । मैंने कहा नही खुलेगा, क्योंकि मैंने सुरक्षा की वजह से दरवाजे के लॉक पर एल्यूमिनियम की पत्ती मुड़वा रखी है । कुछ देर रूककर वह बोला, फिर तो ये बड़े वाले स्केल से खुलेगा । मैंने पूछा कि बड़े स्केल से कैसे खुलेगा? तो वह बोला, साब, लाक का दूसरा बटन दरवाजे की तलहटी मे होता है वहाँ तक अगर स्केल पहुँच जाए तो खुल जाता है । मैंने फिर उससे पूछा कि यहाँ पर किसी के पास है वह स्केल ? वह बोला, ऊपर तीसरी मंजिल मे ऑफिस मे मेरा एक जानने वाला है उसके पास है। वक्त की नजाकत को समझते हुए मैंने जेब से बटुआ निकIला और दस-दस के दो नोट उसके हाथ मे रखते हुए कहा, यार भाई, तुम उससे ले आवो और इसे खोलो । रूपये जेब मे रखते हुए वह लिफ्ट की और मुडा और कहा, साब बस पाँच मिनट इन्तजार करो, अभी लाया । थोडी देर मे उसने स्केल से मेरी गाड़ी के दरवाजे खोल दिए थे । मैंने उसका शुक्रिया अदा किया और चल दिया । ऑफिस पहुँच, ऑफिस बॉय को बुला कर उसी तरह का एक बड़ा स्केल, स्टेशनरी की दुकान से खरीदकर मंगवाया । जब वह स्केल लेकर आया तो मेरे एक साथी मित्र ने पूछा कि तुम इस स्केल को रखोगे कहाँ ? मैंने तुंरत, बिना सोचे जबाब दिया, अपनी गाड़ी मे । आसपास के सभी साथी मेरी बात सुन जोर से हंस पड़े । मैं फिर भी नही समझ पाया था, और तब मुझे शर्मिन्दिगी सी महसूस हुई जब मेरे मित्र ने समझाया कि अगर तू इसको गाड़ी मे रख देगा और गाड़ी इसी तरह बंद हो जायेगी तो फिर इसको प्रयोग मे लाएगा कैंसे ? ये तो बंद पड़ी गाड़ी के अन्दर होगा । फिर एक बारी सोचा कि इसको घर पर रखु ,किंतु फिर दिमाग ने कहा कि अगर घर पर रखेगा और गाड़ी कहीं रास्ते मे बंद हुई तो ? अतः फिर मैंने उसके लिए गाड़ी के अगले बम्बर के नीचे लोहे की पत्तिया वेल्ड करवाकर जगह बनाई थी ।


जैसे ही लोहे के उस स्केल का मुझे ध्यान आया, मैंने अपनी गाड़ी की रफ़्तार बढ़ा दी । मैंने मन ही मन ठान लिया था कि या तो आज मेरी न्यू इयर इव मनेगी या फिर इनकी । वैसे भी दो-तीन पैग मेरे अन्दर गए हुए थे जो मेरे पुरुषार्थ को उकसा रहे थे कि कर दे इनका कल्याण । कुछ आगे जाकर उन्होंने अपनी कार यमुना के किनारे की झाडियों की ओर घुमा दी । मुझे मालूम था कि इन झाडियों और दलदल मे ये ज्यादा दूर नही जा सकते, अतः मैंने अपनी गाड़ी रोड पर ही उस दिशा में मोड़कर छोड़ दी, जिस दिशा में वे सेंट्रो और अल्टो को ले गए थे । मैंने अपनी गाड़ी के हेड लाईट जलती रहने दी ताकि सामने रौशनी पड़े । उनकी गाड़ी दस -पन्द्रह कदम दूर जाकर रुक गई थी । मैंने पेंचकस जेब मे डाल दिया तथा बम्पर के नीचे रखे स्केल को निकाल हाथो से कसकर पकड़ लिया, और उनको ललकारते हुए मैं उनकी गाड़ी की तरफ़ बढ़ा I वे सभी गाड़ी के अन्दर ही थे, जैसे ही मैं सेंट्रो के करीब पहुँचा, बिना देर किए स्केल से सेंट्रो के पीछे के शीशे को चकनाचूर कर दिया ।कार के अन्दर की लाईट जल रही थी ,सेंट्रो की पिछली सीट पर एक युवक उस युवती के कपड़े फाड़ रहा था और युवती रोते चिल्लाते, पूरे जी-जान से अपने को उसके चंगुल से छुडाने की कोशिश कर रही थी । अचानक हुए इस हमले से घबराकर पिछली सीट पर बैठा युवक सहम कर दरवाजा खोल बाहर निकला। मैंने यह भी नोट किया कि यह जानते हुए भी कि कोई पीछा कर रहा है वे लोग जिस तरह फिक्रमंद थे वह यह दर्शाता था कि नशे में वो अपने होशो-हवास खो बैठे थे । वह युवक अभी कार से पूरा उतरा भी नही था कि मैंने उसके दाहिने कंधे पर लोहे के खड़े स्केल से जोर का वार कर दिया I वह वहीँ पर अधखुले दरवाजे के बीच फंसकर लुड़क गया । इस बीच पीछे से आल्टो मे बैठा युवक चाकू निकाल कर, मुझे गालियाँ देता हुआ मेरी तरह लपका । जैसे ही उसने मुझ पर चाकू का वार किया, मैंने बांये हाथ से एक कुशल कराटेबाज़ की तरह उसके वार को रोक कर उस पर भी स्केल का वार किया । उसका चाकू का वार बचाते-बचाते भी मेरे बांये बाजू पर एक हल्का जख्म आ गया था । मैंने जोर के एक दहाड़ मारी और दोबारा उसकी ओर झपटा तो वह भाग खड़ा हुआ । तीसरा युवक, जो कि सेंट्रो ड्राइव कर रहा था, इस बीच अंधेरे में कब और कहाँ खिसक लिया, कुछ पता ही नही चला ।


जब मैं निश्चिंत हो गया कि अब वो दोनों युवक आस-पास नही है और तीसरा बेहोश पड़ा है, तो मैंने अपने मोबाइल से दोबारा पुलिस को फ़ोन लगाया, और उन्हें घटना की जानकारी दी । मेरे से उस जगह की सही लोकेशन पूछने के बाद पुलिस ने जल्दी पहुँचने का आश्वाशन दिया और मुझे पुरी तरह सतर्क रहने को कहा । इस बीच आगे सड़क पर जहा मेरी गाड़ी खड़ी थी तीन चार दुपहिया और साईकिल सवार भी खड़े हो गए थे, जिससे मेरे अन्दर भी थोड़ा और आत्मविश्वास आ गया था । न्यू इयर इव होने की वजह से सारे टेलीफोन नेटवर्क बाधित थे और कंही भी फ़ोन नही लग रहा था । मैंने अपने घर फ़ोन करना चाहा तो वहाँ भी नही मिला। मैंने अपनी जेब से रुमाल निकाल अपने हाथ के घाव को बाँधा और फिर मैंने बदहवास और थरथर काँप रही उस युवती की ओर रुख किया । वह भी गाड़ी के दूसरी तरफ़ बाहर निकल गई थी और अपने बचे हुए फटे कपड़ो से अपना अर्धनग्न शरीर ढकने की कोशिश कर रही थी । परिस्थिति को समझ मैंने झट से अपना स्वेटर उतारा और उसके शरीर पर पहना दिया। वह एक २०-२१ साल की एक अच्छे नयन नक्श वाली युवती थी । उसने रोते हुए मुझे 'थैंकयू अंकल' कहा । मैंने उसे ढIडस बंधाया और कहा कि अब आपको घबराने की जरुरत नही। फिर उसके फटे हुए एक कपड़े को जो सेंट्रो की पिछली सीट पर पड़ा था, उठाया और उस युवक के जो अभी भी बेहोश पड़ा था, पीछे हाथ बाँधकर उसे सेंट्रो के अंदर डाल दिया और कार के दरवाजे बाँध कर मैं युवती का हाथ पकड़ उसे सड़क पर खड़ी अपनी गाड़ी के पास ले आया ।


थोड़ा खामोश रहने के बाद मैंने उससे उसका नाम पता पूछा, वह बोली अंकल, मेरा नाम संध्या है, मैं प्रीतविहार इलाके मे रहती हूँ अपने मामी पापा के साथ । चार्टर्ड एकाउंटेंट के फाईनल इयर की स्टुडेंट हूँ और हौज़ खास में एक सी ए फर्म में आरटीकल कर रही हूँ । मेरे पापा केन्द्र सरकार में एक बरिष्ट अधिकारी है । फिर मैंने पूछा बेटा क्या हो गया था, जो तुम्हे इन गुंडे-मवालियों की मदद लेनी पड़ी ? गाड़ी तो तुम्हारी नई लगती है फिर कैंसे ख़राब हो गई ? सिसकते हुए वह बोली, पता नही अंकल, ऑफिस से निकलने के बाद, दो ढाई घंटे से जाम मे फसी थी इसलिए टॉयलेट के लिए वहाँ पर उतरी थी, लेकिन जब वापस गाड़ी स्टार्ट करने लगी तो गाड़ी स्टार्ट नही हुयी । इन कमीनो ने कहा की ये भी दिलशाद गार्डन की तरफ जा रहे है अतः मेरी गाड़ी को टोकर प्रीत विहार मेन रोड तक छोड़ देंगे ।


इस बीच पुलिस की जिप्सी भी वहाँ पहुँच गई थी, मैंने उन्हें घटना के बारे में विस्तार से बताया। फिर मैंने कहा कि फ़ोन नही लग पा रहे है, संध्या से उसके घर का पता माँगा और पुलिस के उस अधिकारी को आग्रह किया कि अगर आप नजदीकी थाने को अपने वायरलेस से, उन्हें संध्या के घरवालो को सूचित करने के लिए कहे तो मेहरबानी होगी , उस अधिकारी ने तुंरत वैसा ही किया । और वे लोग उस युवक को अपने कब्जे में लेकर उनकी गाड़ी और उस इलाके की छानबीन करने लगे । थोडी देर में वहाँ पर एक सफ़ेद जिफ्सी आकर रुकी, उसपर नंबर प्लेट के ऊपर लाल रंग से भारत सरकार लिखा था । एक अधेड़ उम्र, अच्छी पर्सनैलिटी के व्यक्ति उससे उतरे। मुझे समझते देर न लगी कि वह संध्या के पिताजी होंगे । पास आकर उन्होंने पुलिस वालो से घटना की सारी जानकारी ली । फिर संध्या, जो कि मेरी गाड़ी में बैठी थी उसके पास गए, वह अपने पिता से लिपटकर, फफककर रो पड़ी । काफी देर तक वे उसे सँभालते रहे । जब संध्या कुछ सामान्य हूई तो उन्होंने मेरा रुख किया, और दोनों हाथ जोड़ मेरे आगे अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने लगे । मैंने उन्हें कहा कि यह सब ऊपर वाले की कृपा थी जो एक बड़ी अनहोनी होने से बच गई । पुलिस वालो ने हमें उनके साथ पास वाले थाने में चलने और ज़रूरी कारवाही पूरी करने को कहा । इस बीच संध्या के पिता ने भी संध्या से वही सवाल किया कि गाड़ी ऐसे कैसे ख़राब हो गई । तभी मेरी दिमाग में एक संभावना ने कुरेदा । मैंने संध्या से पूछा कि उसकी गाड़ी की चाभी कहाँ है ? क्या गाड़ी में रिमोट कंट्रोल है? संध्या के पिता ने कहा हाँ, सेंट्रल लोक्किंग के अलावा सिक्यूरिटी अलारम भी गाड़ी में लगा है। मैंने फिर संध्या से पूछा कि क्या ड्राइविंग सीट पर बैठने के बाद गलती से दोबारा रिमोट का बटन तो नही दबा लिया था। वह बोली हा दबा तो था और रिमोट की आवाज भी आई थी । मेरा शक सही निकला । मैं उसकी गाड़ी की और बढ़ा चाबी गाड़ी पर ही लगी थी । मगर दरवाजा खुला था, मैंने इग्निशन से चाबी निकाल फिर से रिमोट का बटन दबाया और फिर चाबी इग्निशन में डाल गाड़ी स्टार्ट की तो गाड़ी स्टार्ट हो गई । संध्या मेरी ओर आंखे फाड़कर देख रही थी । पुलिस के एक सिफाही ने आल्टो कार को सेंट्रो से खोलकर अलग किया तो मैं उसे सड़क पर ले आया । फिर मैंने संध्या को समझाया कि अगर गाड़ी में रिमोट लोक्किंग हो और हालाँकि तुम गाड़ी के अन्दर हो लेकिन तुमने गाड़ी स्टार्ट करने से पहले रिमोट का लाक बटन दबा दिया तो गाड़ी स्टार्ट नही होगी । वह भी शायद नौसिखिया ही थी, बोली, अंकल ये तो मुझे पहले किसी ने बताया ही नही था ।

खैर, हम पुलिसवालों के साथ पास के थाने आ गए थे । संध्या के पिता मुझे रह रहकर जोर दे रहे थे कि मैं आपको पहले डॉक्टर के पास ले चलता हूँ । मैंने उनसे कहा कि आप मत परेशान होईये, घर लौटते वक्त किसी नर्शिंग होम से पट्टी करवा लूँगा । मैंने उनसे आग्रह किया कि मैं एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी करता हूँ , और कानूनी प्रक्रिया के लिए बहुत समय नही निकाल पाऊँगा, अतः आप कोशिश कीजिय कि मुझे कम से कम बार कहीं गवाही इत्यादि देने आना पड़े । उन्होंने मुझे आश्वस्त किया । अब तक नया साल भी आ गया था, मैंने संध्या और ओके पिता को नए साल की मुबारकबाद दी और निकलने लगा तो संध्या मेरे पैर छूने के लिए नीच झुकी, मैंने उसे कहा, अरे-अरे ये क्या कर रही हो बेटे । वह झट से मेरे सीने से लग फिर जोर से रो पड़ी । मैंने उसे ढाडस बंधाया और साथ ही उसे और उसके पिता को यह भी समझाया कि इस घटना का अगर जिक्र अपने अडोस- पड़ोस अथवा सगे संबंधियों से कम ही करो, तो अच्छा होगा । क्योंकि आज के जमाने में लोग नमक-मिर्च लगा कर बात का बतडंग बना देते है और एक जवान बेटी के करियर का सवाल है । यह कहकर मैं अपने घर को निकल पड़ा । घर पहुँचा तो दो बज चुके थे, बच्चे सो गए थे और पत्नी भूखी प्यासी घबरायी हुई मेरे इंतज़ार में बैठी थी । खैर, मैंने उसे घटना के बारे में बताया और समझाया कि ऐसे न्यू इयर इव भी कभी-कभार ही मनाये जाते है ।

दिन गुजरे, साल गुजरे । मैं भी उस बात को लगभग भुला चुका था, क्योंकि उस घटना से सम्बंधित किसी बात के लिए मुझे कहीं भी नही बुलाया गया था । फिर अचानक एक दिन, सन् २००६ में नवम्बर के महीने में रविवार को घर पर ही बैठा था कि गेट पर एक मारुती बलेनो आकर रुकी । संध्या, उसके पिता और माँ गाड़ी से उतरे, मेरे घर के गेट पर लगे बोर्ड को गौर से पढ़ा , फिर डूअर बेल बजायी मैं बाहर निकला तो संध्या सबसे आगे खड़ी एक हाथ में दो पोलिथीन के लिफाफे पकडी थी । उसने झुक कर मेरे पैरो में हाथ रखे और मुझे अपने पिता और माँ से मिलवाया । वे शायद घर के गेट पर से ही लौट जन चाहते थे । मैंने उन्हें अन्दर आने का आग्रह किया।

बैठक में पहुँच, मैंने उन्हें अपनी पत्नी से मिलवाया और संध्या से उनके अचानक इस तरह आने का कारण पूछा । संध्या चेहरे पर एक खुबसूरत मुस्कान, मगर आँखों में पानी छलकाकर बोली " अंकल अगले हफ्ते मेरी शादी है उसी के लिए आपको आमंत्रित करने आई हूँ । मैंने उसकी भावनावो को समझते हुए उसके सिर पर हाथ फेरा और उसे शुभकामनाये दी । उसने उन दो पकेटो को मेरी पत्नी को पकडाया, एक में मिठाई का डिब्बा था और एक में ड्राईकिलीन की हुई मेरी वह स्वेटर जो घटना के बाद मैंने उसे पहनाई थी। हलाँकि हर माँ-बाप, जिनकी बेटी इस प्रकार के हादसे से बचायी गई हो, वो अगर बहुत ज्यादा मतलबी और खुद्दार किस्म के नही हो तो हमेशा ही बचाने वाले के प्रति कृतज्ञ रहते ही है, मगर मैं नोट कर रहा था कि जिस तरह से उसके माता पिता एक बड़े ही शालीन ढंग से बेटी की शादी का आमंत्रण मुझे और मेरी पत्नी को दे रहे थे, उससे मैं तो क्या मेरी पत्नी भी गदगद थी । और जिस प्रकार की आत्मीयता, संध्या ने घटना के बाद से अब तक दिखाई थी, उससे यह स्पष्ट झलकता था कि माँ-बाप की शिक्षा और परिवार के ऊँचे संस्कार उसमे कूट-कूट कर भरे थे । सच ही कहा गया है कि परिवार और खानदान में जिस तरह के संस्कार होते है वही बच्चो पर भी कही न कही अपनी अमिट छाप छोड़ जाते है । और मैं समझता हूँ कि शायद काफ़ी हद तक इंसान को समय पर पहुँची मदद, उसके और परिवार के संस्कारों और उसकी अच्छाईयों, अच्छे कर्मो को कहीं न कहीं इससे जोड़ती है ।


चाय नाश्ते के बाद जाते वक्त एक बार पुनः संध्या और उसके माता-पिता ने जोर देकर हमें शादी में उपस्थित होने का आग्रह किया। शादी के दिन, नियत समय पर हम संध्या के घर पहुँच गए थे । हमारे साथ एक विशिष्ट अथिति जैसा सत्कार और व्यवहार हो रहा था, किंतु तुंरत ही मेरे पत्नी ने उनके और उनके सगे संबंधियों के बीच इस तरह की पैठ बना ली थी कि वे अब हमें अपने घर के एक सदस्य जैसा समझने लगे थे । मेरी पत्नी ने भी बढ़चढ़ कर संध्या की सजावट और अन्य कामो में भाग लिया। रात्रि भोजन के बाद मेरी पत्नी मेरे पास आई, और उसने बताया कि संध्या और उसकी माँ सुबह डोली विदाई के वक्त तक रुकने की जिद कर रहे है, उन्होंने बच्चो को भी एक कमरे में सुला दिया है। मैंने भी रुकने की हामी भर दी।

सुबह विदाई की घड़ी भी आ गई, वर-वधु ने सभी उपस्थित परिजनो से आशीर्वाद लिया । और फिर संध्या निकल पड़ी अपने पिया के घर को । कार में उसे विदा होते देखते मेरे मन को कहीं पर एक बड़ी आत्मसंतुष्टि हो रही थी । घर लौटते वक्त, रास्ते भर हम उन लोगो के बारे में ही चर्चा करते रहे । मेरी पत्नी ने मुझे बताया कि रात को जब मैं संध्या की साड़ी ठीक कर रही थी तो वह मेरे से लिपट पड़ी और सिसकते हुए कहा कि आंटी अगर उस दिन अंकल समय पर ........ .... । तो मैं आज यह दिन कभी नही देख पाती। संध्या के कहने का आशय हम समझ गए थे । ड्राइव करते हुए मैं सोच रहा था कि इस संध्या को तो मैंने बचा लिया, मगर न जाने इस देश में कितनी ऐसी अभागी संध्या भी होंगी जो इन दरिंदो के हबस का शिकार हो जाती है, मगर उनकी चितकार कोई नही सुन पाता ।

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4 comments:

  1. कहानी अच्छी लगी . प्रस्तुति के लिए आभार

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  2. @कहानी के पात्र और स्थान सभी काल्पनिक है

    पर कहानी दिल को छू लेने वाली है. आँखें गीलीं हो गईं कहानी पढ़ कर. ईश्वर करे किसी संध्या को ऐसे हादसे से न गुजरना पड़े.

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  3. शुक्रिया गुप्ता साहब ! आप लोगो के उत्साहवर्धन से ही आगे लिखने की प्रेरणा मिलती है !एक बार पुनः धन्यबाद !

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सहज-अनुभूति!

निमंत्रण पर अवश्य आओगे, दिल ने कहीं पाला ये ख्वाब था, वंशानुगत न आए तो क्या हुआ, चिर-परिचितों का सैलाब था। है निन्यानबे के फेर मे चेतना,  कि...