Monday, April 27, 2009

निशानदेह सपना !

सावन अपने प्रचन्ड पर था, और उस साल देश के उत्तरी भागों मे सामान्य से कहीं अधिक बारिश हो रही थी । आज की तरह, तब संचार के बहुत अधिक साधन उप्लब्ध न थे, खासकर उत्तरांचल के पहाडो मे । मै अपने को अन्य गांव वालो से इसलिय अधिक भाग्यशाली समझता था, क्योंकि अपने घर मे तब एक तीन बैन्ड का रेडियो होता था, जिसका कि उस जमाने मे हर साल, पास के पोस्ट आफिस मे सालाना लाइसेन्स फ़ीस जमा करवानी पड्ती थी । रेडियो पर रोज सुबह-शाम समाचारों मे यह जानकारी मिलती रहती थी कि बारिश के कारण आयी बाढ ने कहां क्या तवाही मचाई है । बात सन १९७८-७९ की है । मै तब गांव के पास के ही एक उच्चत्तर माध्यमिक स्कूल मे दसवीं का छात्र था ।

उस रात बादलों की गडगडाहट और बिजली की कड्कन रह-रहकर दिल को यह अह्सास दिला जाती थी कि यहां सब कुछ भगवान भरोसे है, और अगली सुबह का सूरज देख भी पायेगें या नही । रुक-रुक कर पहाडी चट्टानों के टूटकर गिरने की आवाजे दिल को दहला देती थी । एक-एक पल मानो जैसे भारी पड रहा था और मै अपने दादाजी-दादीजी संग एक कमरे मे बैठा, पिताजी की उसी साल सीएसडी कैन्टीन से खरीदकर मुझे दी गयी एचएमटी की घडी को लालटेन के समीप ले जाकर, हर दस-पन्द्रह मिनट बाद समय देखता था।

आखिरकार आसमान मे सब कुछ शान्त हो गया था, एक काली-लम्बी रात के बाद भोर हो गयी थी । मगर सब कुछ पहले जैंसा नही था । आज हमारे घर के आगे के पंया के बडे दरख्त पर भयावह रात के सहमे पक्षियों का कोई शोरगुल नही था । बाहर आकर अपने चारों ओर नजर दौडाई तो पास की सभी पहाडियां जगह-जगह से धंसी पडी थी । कुछ देर बाद स्कूल की घन्टी सुनाई दी तो मैने भी सब कुछ भुलाकर कमरे मे बिखरी अपनी कापी-किताबों को बस्ते मे समेट्ना शुरु किया और कुछ देर बाद स्कूल जा पहुचा । लेकिन स्कूल मे भी सब कुछ सामान्य न था, स्कूल की टिन-चद्दर की छत आधे हिस्से से गायब थी । स्कूल की तीसरी घन्टी बजने पर रोज की तरह सुबह की प्रार्थना के लिये स्कूल प्रागण मे लाईन मे खडे हुए तो हेड-मास्टर साहब ने घोषणा की कि आज न तो प्रेयर होगी और न स्कूल मे पढाई । छठी से आठवीं तक के विद्यार्थी घर जा सकते है , लेकिन नवीं और दसवीं के छात्रो को अध्यापकों के साथ बगल के गांव मे श्रमदान के लिये जाना है जहां रात को बारिश और जमीन धसने से गांव मे भारी तवाही मची है ।

वहां पहुचने पर हमने देखा कि मामला काफ़ी गम्भीर और मंजर भयावह था । गांव के दो मकानों का मलवा तो ऊपर से भुस्खंलन के कारण आये मलवे के साथ नीचे की छोटी पहाडी नदी के किनारे जाकर ठहरा था। जिसमे से एक लाश की सिर्फ़ दोनो टांगे ऊपर की ओर खडी थी और बाकी शरीर मलवे के नीचे दबा पडा था । आस-पास के छोटे-छोटे गांवो से धीरे-धीरे चन्द लोग इकठ्ठा होने लगे थे । फिर हम सभी लोग वहां उपलब्ध औजारो की मदद से जोर-शोर से मलवा हटाने और लाशों तथा घायलो की तलाश मे जुट गये । सरकारी मदद के भरोषे रहते तो चार दिन इन्तजार करना पडता ।

अगले दिन दोपहर तक सारा मलवा खोद्कर हम पांच लाशे निकाल चुके थे । लेकिन गांव के जीवित बचे लोगो के हिसाब से गुमशुदा लोगो की सूची मे कुल आठ लोग थे, पांच लोगो की लाशें तो मिल चुकी थी, मगर बाकी के जिन तीन लोगो का अभी भी कोई अता-पता नही था,वह था लाल सिंह का परिवार, उसकी पत्नी और दो बच्चे । लालसिंह फ़ौज मे कार्यरत थे और उस समय मेघालय मे पोस्टेड थे । उन्हे भी इस दुर्घट्ना के बारे मे टेलीग्राम भेजकर सूचित कर दिया गया था । अब उस घट्ना को चार दिन बीत चुके थे, आकाशबाणी पर इस दैवीय विपदा का समाचार प्रसारित होने के बाद नजदीकी कस्बे से एस एस बी के जवानों की एक टुकडी भी अब मदद के लिये पहुच चुकी थी । लेकिन कोई खास फायदा नही हुआ । लोग कयास लगाने लगे थे कि हो न हो लाल सिंह का परिवार मलवे के साथ आई बरसात के पानी की तेज धार मे बहकर आगे उस छोटी पहाडी नदी मे बह गया हो । अत: इस आशंका के चलते हम दो तीन बच्चे, गांव के दो लोग और दो एस एस बी के जवान नदी के किनारे-किनारे उन्हे ढूढते हुए करीब दो कीलोमीटर नीचे तक चले गये थे कि तभी नदी के किनारे-किनारे पग्डन्डी पर लाल सिंह आता देखाई दिया । वह नजदीकी कस्बे से पैदल ही आ रहा था, क्योंकि भारी बारिश और भूस्खंलन की वजह से एक मात्र मोटर रोड जगह-जगह टूट गयी थी । एकदम समीप आने पर लाल सिंह अपने उन दो गांव वालो के पास टूट कर रह गया और फूट-फूट कर रोने लगा । हम तीनो बच्चे नम आंखो से वह तमाशा देख रहे थे और वो गांव के सयाने लोग तथा एस एस बी के जवान, लाल सिंह को समझाने और दिलाशा देने की कोशिश कर रहे थे ।

कुछ देर तक यह सब चलता रहा, उसके बाद लाल सिंह ने पूछा कि आप लोग कहां जा रहे हो ? तो उन दो गांव वालो ने सारी वस्तुस्थिति उसे समझाई । एक बार पुन: थोडी देर तक रोने के बाद लाल सिंह ने कहा, यहां आप लोगो को कुछ नही मिलेगा, वो लोग ऊपर ही दबे पडे है, मुझे मालूम है वे लोग कहां पर है, वापस चलो । हम लोग बिना कुछ बोले एक बारी सभी लाल सिंह का मुहं ताकने लगे और उसके साथ-साथ वापस गांव की तरफ़ लौट पडे । गांव पहुंच, एक बार फिर काफ़ी देर तक गांव की औरतों का और लाल सिंह का रोना-धोना चलता रहा था और फिर लाल सिहं ने उन एस एस बी के पांच-सात जवानो को एक ऐसी जगह पर से सावधानी से मिट्टी-मलवा हटाने को कहा, जहां पर कि इस भीषण भूस्खंलन के बाद कोई भी सहज अन्दाजा नही लगा सकता था कि इस छोटे से मलवे के ढेर के नीचे तीन जिन्दगियां चिर-निन्द्रा मे सोई पडी होंगी । एस एस बी के जवान फावडे की मदद से धीरे-धीरे मलवा हटा रहे थे, और वहां मौजूद सभी लोग सांस रोके तमाशा देख रहे थे ।

कुछ ही मिनटो मे मिट्टी के नीचे दबे इन्सानी जिस्मों के हिस्से बाहर झांकने लगे थे । लाल सिंह रोये जा रहा था, और गांव के बडे-बुजुर्ग उसे ढाढस बंधा रहे थे । पन्द्रह साल का मै और मेरे कुछ हमउम्र साथियों की मन:स्थिति बडी अजीबोगरीब थी । जहां एक ओर इतने दिनो बाद उन अभागे मृतकों के मिलने की एक अजीब सी खुशी हो रही थी, वहीं मन मे एक अपराध बोध हो रहा था कि उस बेचारे का सब कुछ लुट गया और तू लाशे मिलने पर खुश हो रहा है । हम लोग कभी लाल सिंह के मुह पर देखते थे तो कभी उन लाशो पर । एस एस बी के जवानो ने अब तक सारा मलवा हटा लिया था। वह अभागी मां ( लालसिंह की पत्नी) अपनी दोनो कोहनियों के तले अपनी सात साल की बेटी और दस साल के बेटे को दबाये हुई थी । सारा माहौल एक बार पुन: गमगीन हो गया था । दूसरी तरफ़ एक कौतुहल हमारे नन्हे दिमाग मे भूचाल पैदा किये जा रहा था कि हम लोग तो मृतकों को ढूढ्ने के लिये पिछ्ले चार दिन से भूखे-प्यासे, रात दिन एक किये थे और आखिर लाल सिहं को कैसे मालूम पडा और वह कैसे इतने इत्मिनान से कह रहा था कि ये लोग, यहां इस खास जगह पर दबे पडे है ?

हम बच्चो से जब रहा नही गया तो हम लाल सिंह के पास जा पहुचे । वैसे तो ऐसे मौको पर गांव के बडे-बूढे लोग, बच्चो को ड्पटकर भगा देते थे किन्तु पिछले चार दिनो से वे देख रहे थे कि ये बच्चे कितनी मेह्नत और लगन से इस काम मे जुटे रहे, इसलिये किसी ने हमे कुछ नही कहा । हमने थोडी देर चुपचाप खडे रहकर लाल सिंह को निहारा और फिर एक साथ पूछ बैठे, चाचा, आपको कैसे पता था कि ये लोग यहां….. ! लालसिंह सुबकते हुए बोला, कल रात को यहां आते वक्त, थोडी देर के लिये रेल के डिब्बे मे मेरी आंख लग गयी थी । वो( उसकी पत्नी) मेरे सपने मे आई थी और उसने कहा कि जल्दी गांव पहुचो, वो लोग हमे ढूंढ्ते हुए काफ़ी परेशान है ,जबकी हम तीनो मावत, ऊपर जहां पर हमारा घर था, उसी के बगल मे दबे पडे है, मै बच्चो को निकालने की कोशिश कर रही थी किन्तु निकाल न पायी । लालसिंह फिर जोर-जोर से रोने लगा था और हम सभी बच्चे, आश्चर्यचकित मुद्रा मे एक दूसरे के मुंह ताक रहे थे ।
-गोदियाल

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